डार्विन का "Survival of the Fittest" और उसका सही अर्थ
प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत "Survival of the Fittest" को अक्सर इस रूप में समझा जाता है कि केवल शक्तिशाली जीव ही जीवित रहते हैं। लेकिन यह अधूरा और सतही अर्थ है। वास्तव में इसका गहरा तात्पर्य यह है कि जो जीव अपने पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित कर पाते हैं, वही जीवित रहते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं कि केवल मानव बचे, बल्कि यह कि सभी जीव — सूक्ष्म जीवाणु से लेकर विशालकाय पशु तक — एक जैविक श्रृंखला का हिस्सा हैं। हमारी अपनी जीवन-प्रणाली भी इन जीवों पर निर्भर करती है।
उदाहरण के तौर पर:
• आंतों में पाए जाने वाले माइक्रोब्स हमारे पाचन, प्रतिरक्षा प्रणाली और मानसिक स्वास्थ्य तक में सहायक होते हैं।
• मधुमक्खियाँ और तितलियाँ परागण के बिना खाद्य श्रृंखला को अस्तित्व में नहीं रख सकतीं।
• मिट्टी के जीवाणु पौधों की वृद्धि में सहायक हैं, जो अंततः हमें अन्न प्रदान करते हैं।
यदि हम इन सभी जीवों की उपेक्षा करें या उन्हें नष्ट करें, तो मानव अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा।
जैन दर्शन और अहिंसा की व्याप्ति
जैन धर्म ने सदियों पहले ही इस परस्पर निर्भरता को समझ लिया था। यहाँ अहिंसा केवल मनुष्यों के प्रति नहीं, बल्कि "सर्वप्राणी मात्र" के प्रति करुणा और सहअस्तित्व की भावना है।
"परिग्रह परिमाण", "सयंम" और "अनुकम्पा" जैसे सिद्धांत इस विचार को बल देते हैं कि हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित करें, ताकि अन्य जीवों के अस्तित्व में बाधा न बने।
आचार्य तुलसी और महाप्रज्ञ की दृष्टि
आचार्य तुलसी, जिन्होंने अनुव्रत आंदोलन की स्थापना की, ने यह स्पष्ट किया कि यदि समाज को स्थायित्व देना है, तो उसे अहिंसा को जीवनशैली में बदलना होगा।
उनके उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ ने अहिंसा को केवल उपदेश नहीं, बल्कि मनोविज्ञान, विज्ञान और व्यवहार का विषय बनाया। उन्होंने जीवन विज्ञान और प्रेक्षाध्यान के माध्यम से यह सिखाया कि यदि मनुष्य भीतर से शांत होगा, तो वह बाहर भी हिंसा नहीं करेगा।
जीवों के बीच का संतुलन
प्राकृतिक जगत में भी हिंसा एक आवश्यकता के रूप में होती है, न कि प्रवृत्ति के रूप में। उदाहरण के लिए, एक शेर तभी हिरण का शिकार करता है जब वह भूखा होता है। वह मनोरंजन के लिए हत्या नहीं करता, न ही वह अपनी आवश्यकता से अधिक जीवों को मारता है।
यह प्रकृति का संतुलन है — जहाँ हर जीव की भूमिका तय है, और जब तक वह भूखा नहीं है, तब तक वह दूसरे प्राणियों के अस्तित्व को सम्मान देता है।
इसमें हमें एक गहरा संदेश मिलता है — संयम और सह-अस्तित्व ही अहिंसा का मूल है।
मानवता की श्रृंखला को टूटने से बचाना
आज जब हम पृथ्वी के संसाधनों का अत्यधिक दोहन कर रहे हैं, वनों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, जीव-जंतुओं की प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, तब हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की इस जटिल कड़ी में कोई भी जीव "अवांछित" नहीं है।
हर जीव, चाहे वह कीटाणु हो, पक्षी हो, या जलीय जीव, हमारे अस्तित्व के लिए आवश्यक है। इन सभी को बचाना, और उनके प्रति करुणा रखना — यही वास्तविक अहिंसा है।
अहिंसा ही समाधान
के सी जैन - अहिंसा कोई आदर्शवादी कल्पना नहीं, बल्कि वर्तमान संकटों का व्यावहारिक समाधान है।
• जब हम प्रत्येक जीव का सम्मान करेंगे,
• जब हम प्रकृति की विविधता को बचाएँगे,
• और जब हम संयमित उपभोग और संवेदनशीलता को अपनाएँगे,
तभी हम एक स्थायी, शांतिपूर्ण और नैतिक समाज की ओर बढ़ पाएँगे।
आचार्य तुलसी और महाप्रज्ञजी की वाणी आज भी हमें यही स्मरण कराती है:
"जियो और जीने दो" — यही अहिंसा का सार है, और यही आज की सबसे बड़ी आवश्यकता भी।