निर्जला एकादशी व्रत कथा:
महंत साध्वी शालिनीनंद महाराज - पौराणिक कथा के अनुसार, जब युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से ज्येष्ठ मास की शुक्ल एकादशी के महत्व के बारे में पूछा, तो श्रीकृष्ण ने वेदव्यास जी से इसका वर्णन करने को कहा। वेदव्यास जी ने बताया कि दोनों पक्षों की एकादशियों पर भोजन नहीं करना चाहिए। द्वादशी को स्नान, पूजन और ब्राह्मणों को भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करना उचित है।
इस संदर्भ में पाण्डवों में भीमसेन ने अपनी कठिनाई व्यक्त की। उन्होंने कहा कि उनकी प्रबल भूख के कारण वे प्रत्येक एकादशी का व्रत नहीं रख सकते। तब वेदव्यास जी ने उन्हें ज्येष्ठ मास की शुक्ल एकादशी का निर्जला व्रत करने की सलाह दी। इस व्रत में केवल आचमन या कुल्ला के लिए जल ग्रहण किया जा सकता है, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है।
व्रत का महत्व और विधि:
निर्जला एकादशी का व्रत सूर्योदय से अगले दिन सूर्योदय तक जल त्याग कर किया जाता है। द्वादशी को स्नान, ब्राह्मणों को जल और सुवर्ण दान, और भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए। इस व्रत का पालन करने से वर्ष भर की सभी एकादशियों का फल प्राप्त होता है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार, जो इस दिन निराहार रहता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है।
इस दिन भगवान विष्णु का पूजन, जलमयी धेनु, घृतमयी धेनु या प्रत्यक्ष गौ दान, और ब्राह्मणों को मिष्ठान्न व दक्षिणा देने की परंपरा है। अन्न, वस्त्र, शैय्या, छाता, कमण्डलु और जूते जैसे दान विशेष पुण्यकारी माने जाते हैं। जो व्यक्ति इस व्रत का पालन करता है, वह न केवल स्वयं को, बल्कि अपनी सौ पीढ़ियों को भी भगवान विष्णु के परम धाम तक पहुंचाता है।
भीमसेन और पाण्डव द्वादशी:
वेदव्यास जी की सलाह पर भीमसेन ने इस व्रत को अपनाया, जिसके कारण यह एकादशी ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से भी विख्यात हुई। यह व्रत न केवल पापों का नाश करता है, बल्कि स्वर्गलोक और मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है।
महंत साध्वी शालिनीनंद महाराज ने सभी सनातनियों से आग्रह किया कि वे इस पवित्र दिन भगवान विष्णु की भक्ति में लीन रहें और यथासंभव व्रत व दान करें। इस एकादशी की कथा सुनने और वर्णन करने से भी अपार पुण्य की प्राप्ति होती है।