'बोन ग्लू' क्या है और यह कैसे काम करता है?
संजय सक्सेना, वरिष्ठ विश्लेषक और विचारक बताते हैं कि चीन के वैज्ञानिकों ने एक खास बायोमटेरियल,
'बोन ओ2' बनाया है, जो हड्डियों को जोड़ने में मदद करता है। इसे सीपों से प्रेरणा लेकर विकसित किया गया है, जो समुद्र में अपनी मजबूत चिपकने की क्षमता के लिए जाने जाते हैं। वैज्ञानिकों ने सोचा कि अगर सीप पानी में चट्टानों से मजबूती से चिपक सकते हैं, तो हड्डियों को भी खून वाले माहौल में जोड़ा जा सकता है। इसी विचार से 'बोन ग्लू' का जन्म हुआ। यह ग्लू पूरी तरह बायोडिग्रेडेबल है, यानी यह 6 महीने में शरीर में घुल जाता है। इसकी चिपकने की ताकत 200 किलोग्राम से भी अधिक है, जिससे यह टूटी हड्डियों को तेजी से जोड़ता है और बाद में अपने आप घुल जाता है।
सर्जरी में 'बोन ग्लू' के फायदे:
संजय सक्सेना के अनुसार, चीन के वानजाउ में डॉ. लिन जियानफेंग की टीम ने इस ग्लू का 150 से अधिक मरीजों पर सफल परीक्षण किया है। यह ग्लू सुरक्षित और प्रभावी साबित हुआ है। सर्जरी के दौरान इसे लगाने से हड्डियाँ कुछ ही मिनटों में जुड़ जाती हैं, जिससे ऑपरेशन का समय कम होता है। इसके प्रमुख फायदे हैं: धातु इम्प्लांट की जरूरत खत्म होना, हड्डी ठीक होने के बाद ग्लू का अपने आप घुल जाना, और उपचार को तेज और सुरक्षित करना।
हड्डी टूटने की समस्या का नया समाधान:
*संजय सक्सेना, वरिष्ठ विश्लेषक और विचारक* कहते हैं कि दुनियाभर में हर साल लाखों लोग हड्डी टूटने की समस्या से जूझते हैं। पारंपरिक उपचार महंगे और दर्दनाक होते हैं, और धातु इम्प्लांट से संक्रमण या दूसरी सर्जरी का खतरा रहता है। 'बोन ग्लू' इस समस्या का आसान और सुरक्षित समाधान है। यह बायोडिग्रेडेबल होने के कारण उपचार को अधिक प्रभावी बनाता है, जिससे मरीजों को बिना अतिरिक्त सर्जरी के तेजी से ठीक होने में मदद मिलती है।
क्या यह भविष्य की तकनीक है?:
संजय सक्सेना का मानना है कि चीन ने इस बायोमटेरियल के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पेटेंट दायर किए हैं। यह न केवल चिकित्सा विज्ञान की बड़ी उपलब्धि है, बल्कि हड्डी उपचार के तरीके को पूरी तरह बदल सकती है। यह तकनीक सर्जरी के क्षेत्र में क्रांति लाने की क्षमता रखती है।
संजय सक्सेना, वरिष्ठ विश्लेषक और विचारक का कहना है कि भारत में भी इस तरह के शोध को बढ़ावा देना चाहिए। यह तकनीक न केवल मरीजों के लिए फायदेमंद होगी, बल्कि चिकित्सा क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बनाएगी। समय आ गया है कि हम ऐसी नवीन तकनीकों को अपनाएँ और चिकित्सा के क्षेत्र में नए कदम उठाएँ। संजय सक्सेना के शब्दों में, क्या भारत को भी ऐसी तकनीकों पर काम करना चाहिए?