कविता की शुरुआत सीधे समर्पण की अभिव्यक्ति से होती है:
हाँ, मैं तेरी दासी बनकर
तेरे चरणों में रह लूंगी।
तेरे संग काँटों पर चलकर
हर दुख तेरा अपना लूंगी।
यह पंक्तियाँ नारी के त्याग और सहनशीलता को दर्शाती हैं। लेखक ने इसे साधारण और स्पष्ट भाषा में प्रस्तुत किया है, जिससे भाव तुरंत पाठक तक पहुँचता है।
कविता आगे नारी की कोमलता और दृढ़ता के द्वंद्व को उजागर करती है:
क्या सोचता है तू मुझको?
नारी कोमल और मृदु होती है,
हाथ लगाने पर नर्म फूल जैसी।
पर मैं वही फूल सही,
जो काँटों को भी तेरे लिए ढक दूंगी।
यहाँ कवि ने नारी को केवल कोमल या सौम्य नहीं दिखाया, बल्कि परिस्थितियों में कठोर और साहसी होने की क्षमता का भी चित्रण किया है।
आगे कविता में नारी का आत्म-सम्मान और साथी के प्रति प्रतिबद्धता उभरकर आती है:
आँखें फेरना मत मुझसे,
मुझसे ही मेरी पहचान है।
साथ तेरा जब मिले मुझे,
देख, मेरी दुनिया क्या चलती है।
कविता का यह भाग दर्शाता है कि प्रेम केवल समर्पण नहीं, बल्कि सम्मान और आत्म-स्थिति का संतुलन भी है।
इसके बाद नारी की दृढ़ता और साहस की भावना अधिक स्पष्ट होती है:
तेरी राहों में मैं बिछकर
मंज़िल तक तुझे पहुँचा दूंगी।
हाँ, मैं तेरी दासी बनकर
तेरे चरणों में रह लूंगी।
नारी कोमल जरूर है,
मगर इतनी कोमल भी नहीं।
जब समय पड़े, चट्टान बनकर
एक जगह अड़ी रह सकती हूँ।
मुझको अपने साथ ले ले,
तूफ़ानों में भी काम आऊंगी।
यह कविता न केवल प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, बल्कि नारी की बहुआयामी शक्ति—कोमलता, दृढ़ता और समर्पण—को भी उजागर करती है।
“तेरी दासी” एक प्रेरणादायक कृति है, जो पाठक को प्रेम, समर्पण और नारी शक्ति की अभिव्यक्ति का अनुभव कराती है। डॉ. नवलपाल प्रभाकर दिनकर ने इसे सरल और सहज भाषा में लिखा है, जिससे हर स्तर का पाठक इसे आसानी से समझ सके और महसूस कर सके। यह कविता निश्चित रूप से नारी सशक्तिकरण और भावनात्मक समर्पण के प्रतीक के रूप में यादगार बनेगी।