यह कविता न केवल जीवन की अनिश्चितताओं का रूपक है, बल्कि उसमें भाग्य, विकल्प और परिवर्तन की दार्शनिक गहराई भी अंतर्निहित है।
-कविता | “एक बूंद” — डॉ० नवलपाल प्रभाकर दिनकर
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी,
सोच रही थी कहां गिरूंगी
जो यहाँ से मैं निकल पड़ी।
गिरूंगी किसी अंगारे पर
या गिरूंगी धूल पर।
जल जाऊंगी आग पर
या मिल जाऊंगी रेत में।
मन में थी खलबली।
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी।
समुद्र का क्या बढ़ेगा
जो एक बूंद पानी गिरेगा।
चातक पक्षी जो पियेगा
वो गायेगा गुण मेरा।
उसके मन में थी हैरानी।
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी।
होगा सो, देखा जायेगा
यह सोच घर उसने छोड़ा।
गिरते-गिरते उसने सोचा
गिरूंगी किसी मटकी में
जो होगी बिलकुल खाली।
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी।
गिर रही थी तभी वहाँ
हवा का एक झोंका आया,
दूर उड़ा कर ले गया
सीप के अधखुले मुख में
वह बूंद थी गिर पड़ी।
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी।
स्वाति नक्षत्र था
मोती उसे बना दिया,
भाग्य उसका बदल गया।
सोच रही थी क्या बनूंगी मैं
बन गई कुछ और ही।
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी।
अक्सर घर से निकलते समय
सोचते रहते हैं लोग
मिलेगा क्या उन्हें?
अपने इस जीवन में
किस्मत को समझते हैं बिगड़ी।
गहरे घने बादलों में
एक बूंद थी अटकी।
-विश्लेषण: कविता की आत्मा और संदेश
यह कविता मात्र एक बूंद के गिरने की कहानी नहीं है, यह उस आत्मसंघर्ष, अनिश्चितता और अंततः अवसर के रूपांतरण की प्रतीकात्मक कथा है जिससे हम सभी गुजरते हैं।
बूंद पहले भय में है — वह सोचती है कहीं वह रेत में मिलकर खो न जाए, या आग में जल न जाए। लेकिन जब वह साहस करती है, जब वह बादलों को छोड़ती है — तभी भाग्य उसके लिए वह रास्ता रचता है, जो मोती\
समकालीन संदर्भ
आज के युवा, विद्यार्थी, नौकरीपेशा, कलाकार — सबके जीवन में यह “एक बूंद” की स्थिति आती है। यह कविता उन्हें साहस देती है कि जब तक आप प्रयास नहीं करते, जब तक आप निकलते नहीं, तब तक न कोई मोती बनेगा, न कोई बदलाव होगा।
-कविता का काव्य सौंदर्य
डॉ० दिनकर की लेखनी सरल भाषा, लयात्मक प्रवाह\प्रतीकों की सघनता\
-निष्कर्ष
“एक बूंद” कविता न केवल हिंदी साहित्य की एक सशक्त रचना है, बल्कि यह समकालीन जीवन की चिंता, विकल्प, भय और विश्वास\
यह रचना बताती है कि भाग्य से अधिक ज़रूरी है साहस, और डर से बड़ा होता है प्रयत्न।