सोशल मीडिया पर प्रतिबंध: पहला झटका:
संजय सक्सेना बताते हैं कि 4 सितंबर 2025 की रात को नेपाल सरकार ने सूचना और संचार मंत्रालय के जरिए 26 प्रमुख सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स, जैसे फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप, X (पूर्व में ट्विटर), यूट्यूब और लिंक्डइन, पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार का कहना था कि इन प्लेटफॉर्म्स से गलत सूचना फैल रही थी, डेटा सुरक्षा को खतरा था और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियंत्रण जरूरी था। लेकिन यह प्रतिबंध युवाओं के लिए बड़ा झटका था। सोशल मीडिया उनके लिए सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि विचार साझा करने, जागरूकता फैलाने और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा का मंच था। इस प्रतिबंध ने युवाओं की आवाज को दबाने की कोशिश की, जिससे उनका गुस्सा और बढ़ गया।
नेपो किड्स और असमानता की चिंगारी:
संजय सक्सेना - सोशल मीडिया प्रतिबंध से पहले #NepoKids और #NepoBaby जैसे हैशटैग ने ऑनलाइन तूफान मचा दिया था। नेताओं और उच्च वर्ग के बच्चों द्वारा विदेशों से Gucci जैसे महंगे ब्रांड्स लाने की तस्वीरें वायरल हुईं। आम जनता ने सवाल उठाया कि जब नेता और उनके बच्चे ऐशो-आराम की जिंदगी जी रहे हैं, तब आम लोग रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष क्यों कर रहे हैं? ‘नेपो किड्स’ जैसे शब्द अब सिर्फ पारिवारिक रिश्तों को नहीं, बल्कि सत्ता और धन के दुरुपयोग को दर्शाने लगे। इन मुद्दों ने भ्रष्टाचार और सामाजिक असमानता को उजागर किया, जिसके खिलाफ युवाओं ने सोशल मीडिया और सड़कों पर अपनी आवाज उठाई।
सड़कों पर उतरा आक्रोश:
संजय सक्सेना लिखते हैं कि सोशल मीडिया पर उभरे गुस्से ने युवाओं को सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित किया। 8 सितंबर 2025 को काठमांडू और अन्य शहरों में हजारों युवा, स्कूल-कॉलेज की वर्दी में, तख्तियां लेकर और नारे लगाते हुए संसद भवन की ओर बढ़े। उनका मुख्य नारा था: “भ्रष्टाचार बंद करो, सोशल मीडिया नहीं!” यह नारा सरकार के फैसलों के खिलाफ सीधा विरोध था। प्रदर्शन धीरे-धीरे हिंसक हो गया। पुलिस ने आंसू गैस, वाटर कैनन और रबर बुलेट्स का इस्तेमाल किया। विपक्ष ने आरोप लगाया कि कुछ जगहों पर पुलिस ने गोलीबारी भी की। गुस्साए प्रदर्शनकारियों ने संसद भवन में आग लगाई, सरकारी दफ्तरों को नुकसान पहुंचाया और नेताओं के घरों पर हमले किए।
हानि और नुकसान:
संजय सक्सेना के अनुसार, शुरुआती रिपोर्ट्स में कम से कम 19 लोगों की मौत की खबर थी, जो बाद में बढ़कर लगभग 30 हो गई। सैकड़ों लोग घायल हुए, जिससे अस्पतालों पर दबाव बढ़ गया। इसके अलावा, 13,500 कैदियों के जेल से भागने की खबरों ने देश में सुरक्षा और सामाजिक अशांति की गंभीर स्थिति को उजागर किया।
युवाओं की आवाज: गुस्सा और उम्मीद:
संजय सक्सेना बताते हैं कि यह आंदोलन सिर्फ गुस्से का प्रतीक नहीं था, बल्कि इसमें बदलाव की गहरी चाह थी। एक AI इंजीनियर युगांत घिमिरे ने कहा, “हमें पुराने नेताओं को सत्ता से हटाना होगा। हम इन चेहरों से तंग आ चुके हैं।” एक अन्य प्रदर्शनकारी की तख्ती पर लिखा था, “नेताओं के बच्चे Gucci बैग लाते हैं, जनता के बच्चे ताबूत में लौटते हैं।” इन शब्दों में गुस्सा था, लेकिन एक संकल्प भी था कि यह आंदोलन सिर्फ विरोध नहीं, बल्कि सच्चे बदलाव का रास्ता बनेगा।
मीडिया की भूमिका और सरकार का रुख:
संजय सक्सेना के अनुसार, मीडिया ने प्रदर्शनकारियों की कहानियों, पुलिस कार्रवाई और हिंसा को प्रमुखता से दिखाया। लेकिन कई मीडिया संस्थानों ने आरोप लगाया कि सरकार ने इंटरनेट बंद करके और नेटवर्क शटडाउन जैसे कदमों से खबरों को दबाने की कोशिश की। प्रदर्शनों के दबाव में सरकार ने सोशल मीडिया प्रतिबंध हटाया, मृतकों के परिवारों को मुआवजा देने का वादा किया और जांच आयोग बनाया। लेकिन सवाल यह है कि क्या ये कदम स्थायी बदलाव लाएंगे या सिर्फ तात्कालिक प्रतिक्रिया हैं?
नेपाल की नई शुरुआत?
संजय सक्सेना लिखते हैं कि Gen Z का यह आंदोलन सिर्फ विरोध नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है। यह मांग है कि “हमें झूठे वादों से नहीं, सच्चे बदलाव से न्याय चाहिए।” यह आंदोलन दिखाता है कि युवा केवल गुस्से में नहीं, बल्कि अपने देश में असमानता, भ्रष्टाचार और कुशासन के खिलाफ स्थायी समाधान चाहते हैं। यह प्रदर्शन साबित करता है कि लोकतंत्र में सिर्फ चुनाव और सत्ता परिवर्तन पर्याप्त नहीं। स्वतंत्र पत्रकारिता, अभिव्यक्ति की आजादी और जनता की आवाज के लिए जगह जरूरी है। नेपाल की युवा पीढ़ी का यह आंदोलन न केवल उनके अधिकारों की लड़ाई है, बल्कि यह एक संदेश भी है कि अगर सरकारें नीतियां नहीं बदलेंगी, तो युवा अपने भविष्य के लिए डटकर संघर्ष करेंगे। यह आंदोलन नेपाल की राजनीति में एक नई शुरुआत की ओर इशारा करता है।