सच्चा संत कौन?
साध्वी जी ने अपने प्रवचन की शुरुआत इस प्रश्न के साथ की कि सच्चा संत या सद्गुरु कौन होता है। उन्होंने स्पष्ट किया कि जो व्यक्ति हर समय केवल बेटा, पत्नी, धन, लक्ष्मी, माया और स्वार्थ की बात करता है, वह न तो संत हो सकता है और न ही सद्गुरु। सच्चे सद्गुरु लोगों की इच्छाओं के अनुकूल बातें नहीं करते। वे जीवन के सत्य, जन्म और मृत्यु के उद्देश्य का बोध कराते हैं। साध्वी जी ने कहा, "सच्चा संत वह है जो जीवन का सार समझता है और कर्म के महत्व को जानता है। वह जनसाधारण को भी यही मार्ग दिखाता है, भले ही यह मार्ग कठिन क्यों न हो।"
माया और मुक्ति का संघर्ष
उन्होंने समाज की भौतिकवादी प्रवृत्ति पर चिंता जताते हुए कहा कि माया और भोगों में लिप्त लोग जब संतों से मुक्ति का मार्ग सुनते हैं, तो उन्हें तकलीफ होती है। लोग अपनी बुरी आदतों को छोड़ने में पूरा जीवन लगा देते हैं, और जब कोई उन्हें संचित संपत्ति या माया से वैराग्य लेने की सलाह देता है, तो वे उसे अपना सबसे बड़ा शत्रु मानने लगते हैं। साध्वी जी ने जोर देकर कहा, "ऐसे लोग सच्चे संतों से नफरत करते हैं और उनसे दूरी बनाते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि यही संत उनके सच्चे मित्र हैं, जो उनका कल्याण चाहते हैं।"
कर्मकांड और पाखंड का जाल
प्रवचन में साध्वी जी ने कर्मकांड और पाखंड पर भी गहरा प्रहार किया। उन्होंने कहा कि जो लोग दूसरों को कर्मकांड, पाखंड और भोगों में फंसाते हैं, वे जीवों को नरक और योनियों में धकेलते हैं। यह स्थिति सभी जीवों के लिए कष्टकारी है। उन्होंने मनुष्य की बुद्धि को परमात्मा का अनमोल उपहार बताया, जिसे वेदों के ज्ञान से साधा जा सकता है। वेदों के माध्यम से मनुष्य अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त कर सकता है।
वर्ण व्यवस्था और आश्रमों का महत्व
साध्वी जी ने वेदों में वर्णित वर्ण व्यवस्था और चार आश्रमों—ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास—के महत्व को विस्तार से समझाया। उन्होंने कहा कि ये चारों आश्रम हर मनुष्य के लिए आवश्यक हैं और इनके बिना जीवन का कल्याण असंभव है। उन्होंने चिंता व्यक्त की कि आधुनिक समाज ने वानप्रस्थ और संन्यास जैसे महत्वपूर्ण आश्रमों को पूरी तरह भुला दिया है।
ब्रह्मचर्य: इस आश्रम में व्यक्ति को ज्ञान और विद्या अर्जन करनी चाहिए।
गृहस्थ: इस आश्रम में ज्ञान का उपयोग कर जीवन को सफल बनाना चाहिए।
वानप्रस्थ: पचास वर्ष की आयु के बाद संसार से वैराग्य लेना चाहिए और एकांत में इसका अभ्यास करना चाहिए।
संन्यास: सहपत्नी के साथ संन्यास ग्रहण कर मोक्ष के लिए सभी संभव प्रयास करने चाहिए।
साध्वी जी ने कहा कि यदि मनुष्य इन आश्रमों का पालन नहीं करता, तो उसे दंड स्वरूप नरक और योनियों में जाना पड़ता है। इसे कोई देवी-देवता, ज्योतिष, तांत्रिक या कर्मकांड नहीं रोक सकता।
पश्चाताप और सही समय पर जागृति
प्रवचन के सबसे मार्मिक हिस्से में साध्वी जी ने समाज को चेतावनी दी कि जो लोग आज संबंधों और समाज की दुहाई देते हैं, वे अंत में अकेले ही अपने कर्मों का फल भोगते हैं। उस समय उन्हें उन सद्गुरुओं की याद आती है, जिन्हें उन्होंने माया और अहंकार के कारण अनदेखा किया था। साध्वी जी ने कहा, "जब व्यक्ति जीवन के अंत में पश्चाताप करता है और सोचता है कि यदि उसने सद्गुरु की बात मान ली होती, तो उसकी सद्गति हो जाती, तब बहुत देर हो चुकी होती है। वह दुख में रोता है, लेकिन कुछ हासिल नहीं होता।"
कल्याण का मार्ग: अभी नहीं तो कभी नहीं
अपने प्रवचन के अंत में, साध्वी शालिनीनंद जी महाराज ने सभी से आह्वान किया कि यदि हम अपने कल्याण के लिए आज प्रयास कर सकते हैं, तो हमें इसे तुरंत शुरू कर देना चाहिए। उन्होंने जोर देकर कहा, "समय रहते सच्चे मार्ग को अपनाएं, वरना पश्चाताप के अलावा कुछ प्राप्त नहीं होगा। न कोई कर्मकांड, न कोई पूजा और न ही कोई तांत्रिक आपका उद्धार कर सकता है।"
प्रवचन का प्रभाव
साध्वी जी का यह प्रवचन न केवल आध्यात्मिक जागृति का संदेश देता है, बल्कि आधुनिक समाज की भौतिकवादी सोच पर भी गहरी चोट करता है। उनके शब्दों ने श्रोताओं को आत्म-मंथन के लिए प्रेरित किया और जीवन के सच्चे उद्देश्य को समझने का अवसर प्रदान किया। यह प्रवचन उन लोगों के लिए एक आह्वान है जो माया और अहंकार के जाल में फंसे हैं और अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहते हैं।