कहानी : दूसरा जन्म
अधेड़ उम्र की औरत, निर्मला, गाँव से बाहर काफी दूर एक बड़े से बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर चिल्ला-चिल्ला कर अपने आपको कोसती हुई रो रही थी। वह कह रही थी, "ये सब मेरी गलती थी भगवान...! मैं अपनी जवानी में होने वाली उस गलती पर आज भी शर्मिंदा हूँ। हे भगवान! मैं मानती हूँ कि मैंने वह पाप किया है। जिसका मैं प्रायश्चित करके भी उस पाप से मुक्त नहीं हो सकती, पर मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप मेरी उस गलती को क्षमा करके दोबारा गलती ना करने का एक बार फिर से मौका दें। मैं हमेशा के लिए ये प्रतिज्ञा करती हूँ कि भविष्य में भी किसी और को ये गलती करने की सलाह नहीं दूँगी। मुझे मेरी गलती का एहसास हो गया है। अतः अब आप फिर से मेरी झोली में मेरी खुशियाँ वापस डाल दें।"
पन्द्रह साल हो गए थे, जब निर्मला ने अपनी सास के कहने पर अपनी एक दिन की नवजात बेटी को उसी बरगद के पेड़ के नीचे छोड़ दिया था। वह रोते हुए बोली, "पन्द्रह साल से हर साल इसी दिन यहाँ आकर अपनी गलती का प्रायश्चित करती हूँ। आप इतने निष्ठुर कैसे हो सकते हैं प्रभु? परिवार में सभी मुझे बाँझ कहकर ताना मारते रहते हैं। मेरी सास, ससुर और ननद ने मुझे पहली बच्ची को मारने के लिए बाध्य किया था। अब वही सास-ननद मुझे बाँझ कहकर घर से निकालने की बात करती हैं। आज मेरी बच्ची का पन्द्रहवाँ जन्मदिन है। अगर वो जीवित होती तो आज पन्द्रह साल की होती। और बच्चे न सही, मुझे मेरी वही बच्ची वापस लौटा दो। मैं उसे ही अपना बेटा-बेटी समझकर छाती से लगा लूँगी। कम-से-कम समाज को मुँहतोड़ जवाब तो दे ही सकती हूँ कि मैं बाँझ नहीं।"
निर्मला ने चेतावनी दी, "हे भगवान, आज आपको मेरी मनोकामना पूरी करनी होगी, नहीं तो आज मैं भी यहाँ पर अपना सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दूँगी।" यह कहकर वह बरगद के तने में अपना सिर पटकने लगी। उसके माथे से खून बहने लगा, आँसुओं और खून की धार एक साथ बही। तभी एक आवाज़ आई, "बस माँ, अब और खून बहाने की ज़रूरत नहीं। मैं आ गई।"
निर्मला रुक गई और पागलों की तरह इधर-उधर देखने लगी। तभी उसके पीछे से दो नन्हे हाथों ने उसके कंधों को छुआ। पीछे मुड़कर देखा तो एक खूबसूरत, पन्द्रह साल की मासूम लड़की खड़ी थी, जो परियों-सी लग रही थी। उसने निर्मला के आँसू पोंछे, माथे के घावों को सहलाया और खून साफ किया। निर्मला इसे सपना समझकर बेहोश हो गई। जब होश आया, तो उसका पति रमेश और वह लड़की उसकी सेवा में लगे थे। रमेश की गोद में उसका सिर था, और लड़की उसके घावों को गीले कपड़े से साफ कर रही थी।
निर्मला ने रमेश से पूछा, "आप यहाँ कैसे?" रमेश ने जवाब दिया, "मैं तो तुम्हारे आने से पहले ही यहाँ आ गया था। मुझे पता था कि हर साल तुम हमारी बच्ची के जन्मदिन पर यहाँ आती हो। मैं सुबह जल्दी तैयार होकर ऑफिस जाने की बजाय इस बरगद की शाखाओं पर बैठकर तुम्हारे प्रायश्चित को देखता था।"
निर्मला ने लड़की की ओर इशारा करते हुए पूछा, "और ये लड़की?" रमेश ने कहा, "यही है हमारी बच्ची, जिसके लिए तुम कई साल से यहाँ प्रायश्चित करने आती हो।" यह सुनते ही निर्मला उस बच्ची के गले से लिपटकर रोने लगी और बार-बार माफी माँगने लगी, "मुझे माफ कर दो मेरी बच्ची। मैं सास-ननद के चक्कर में फंसकर तुम्हें मरने के लिए यहाँ छोड़ गई। अब मैं अपनी बच्ची को जरा सा भी दुख नहीं होने दूँगी।"
बच्ची ने बताया, "पाँच साल तक पापा ने मुझे अपने दोस्त के यहाँ रखा, फिर स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। हर शनिवार को पापा मेरे स्कूल पहुँच जाते थे। ढेर सारी चीज़ें, चॉकलेट और खिलौने लाते। पापा ने कभी मुझे तुम्हारी कमी महसूस नहीं होने दी। पाँच-छह साल से हर जन्मदिन पर पापा मुझे यहाँ लाते थे। पहले तुम सिर्फ़ रोकर प्रायश्चित करती थीं, मगर आज जब तुमने सिर पटकना शुरू किया तो मुझसे रहा नहीं गया।"
लड़की ने निर्मला से पूछा, "माँ, मुझे एक बात बताओ। क्या लड़के ही सबकुछ होते हैं? हम लड़कियाँ कुछ भी नहीं? यदि हम ही इस संसार में नहीं होंगी, तो बताओ लड़के कहाँ से होंगे? यदि एक औरत ही औरत की दुश्मन हो जाएगी, तो कैसे काम चलेगा? तुम जिनकी सीख से मुझे यहाँ छोड़कर गई थीं, वो भी तो औरत ही थीं। भगवान की मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता। मेरे यहाँ छोड़े जाने पर भगवान तुमसे रुष्ट हो गए और तुम्हें कोई अन्य औलाद नहीं दी। मैं भगवान से प्रार्थना करूँगी कि राखी बाँधने के लिए एक भैया ज़रूर दे।"
रमेश ने कहा, "माँ-बेटी का मिलन हो चुका है, अब घर चलें। मुझे बहुत भूख लगी है। खाना खाकर हम बाज़ार जाएँगे। अपनी गुड़िया का जन्मदिन धूमधाम से मनाएँगे।" निर्मला ने पूछा, "सुनो जी, तुमने अपनी गुड़िया का नाम क्या रखा है?" रमेश ने जवाब दिया, "इसका नाम हमने ममता रखा है। चलो ममता, घर चलते हैं।"
ममता ने चिंता जताई, "यदि अब भी दादी और बुआ ने मुझे देखकर निकल जाने को कहा तो?" रमेश ने दृढ़ता से कहा, "अब तो मैं ही पूरे घरवालों को देख लूँगा क्योंकि अब तुम्हारी माँ मेरे साथ है। पहले तो यही उनकी बातों में थी। अब ये मेरे साथ है तो मैं पूरे जहान से अकेला ही लड़ने को तैयार हूँ।"
जब तीनों घर पहुँचे, तो घर रंग-बिरंगे रिबन और गुब्बारों से सजा था। ममता की दादी और बुआ नए कपड़े पहने हुए थीं। चौक में शुभ गीत गाए जा रहे थे। ममता की आरती उतारी गई और उसे दादी-बुआ ने गोद में लेकर घर के अंदर ले गए। यह देखकर निर्मला और रमेश हैरान रह गए। रमेश ने कहा, "जो औरत पौती के नाम से भी घूरती थी, आज वही अपनी पौती की आरती उतारकर गोद में लेकर अंदर ले गई।"
निर्मला ने पूछा, "पर इन्हें कैसे पता चला कि आज ममता घर आने वाली है?" रमेश ने जवाब दिया, "इसका तो मुझे भी नहीं पता।" घर के अंदर मिठाइयाँ सजी थीं, औरतें गीत गा रही थीं। ममता की दादी मिठाइयाँ बाँट रही थीं, और बुआ रेनू उसका परिचय करा रही थी।
रमेश ने अपनी माँ से पूछा, "माँ, ये इतनी सारी मिठाइयाँ और गीत?" दादी ने जवाब दिया, "ये सब हमने तैयार किया है, मैंने और तुम्हारी बहन रेनू ने। हमें सुबह तुम्हारे दोस्त से पता चल गया था कि आज मेरी पौती ममता आने वाली है। मैं बेहद खुश हूँ। मुझे पता लग गया है कि लड़के और लड़की में कोई अंतर नहीं होता। मेरे लिए मेरी पौती ममता ही पौता है। और हाँ, निर्मला, तुम भी सुन लो, खबरदार, मेरी पौती को कभी दुख दिया।"
एक साल बाद, निर्मला और रमेश के घर एक पुत्र ने जन्म लिया। ममता को राखी बाँधने के लिए भाई मिल गया, और परिवार की खुशी का ठिकाना न रहा।
साहित्यिक और सामाजिक प्रभाव :
'दूसरा जन्म' कन्या भ्रूण हत्या और लैंगिक भेदभाव जैसे गंभीर मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती है। ममता का सवाल, "यदि एक औरत ही औरत की दुश्मन हो जाएगी तो कैसे काम चलेगा?" समाज की पितृसत्तात्मक मानसिकता पर गहरा कटाक्ष है। कहानी यह भी दर्शाती है कि प्रायश्चित और पारिवारिक एकता से सामाजिक परिवर्तन संभव है।
दूसरा जन्म एक ऐसी रचना है जो सामाजिक कुरीतियों को उजागर करती है और प्रायश्चित, पुनर्मिलन, और लैंगिक समानता की आशा जगाती है। डॉ. नवलपाल प्रभाकर दिनकर ने अपनी लेखनी से साहित्य को समाज परिवर्तन का सशक्त माध्यम बनाया है। यह कहानी हरियाणा के साहित्यिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में याद की जाएगी।