पृष्ठभूमि: क्यों ज़रूरी हो गया यह संवैधानिक परामर्श?
यह संदर्भ सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के State of Tamil Nadu vs Governor of Tamil Nadu मामले में दिए गए फैसले से जुड़ा है, जिसमें न्यायालय ने कहा था कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को लंबे समय तक रोककर रखना असंवैधानिक है और ऐसा करना संविधान की मूल भावना के विपरीत है। कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा था कि यदि राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं, तो राष्ट्रपति को अनुच्छेद 201 के तहत समयबद्ध निर्णय लेना चाहिए।
इस फैसले के बाद राष्ट्रपति कार्यालय ने संविधान के तहत अपने कर्तव्यों और अधिकारों की व्याख्या को स्पष्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट से मार्गदर्शन मांगा है।
राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट को भेजे गए 14 प्रश्नों का सारांश:
राज्यपाल के पास अनुच्छेद 200 के अंतर्गत विधेयकों पर निर्णय लेने के क्या विकल्प हैं?
क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं?
क्या राज्यपाल द्वारा किए गए निर्णय न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं?
क्या अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल के कार्यों पर पूर्ण न्यायिक प्रतिरक्षा है?
जब संविधान समयसीमा निर्दिष्ट नहीं करता, तब क्या न्यायालय ऐसी समयसीमा निर्धारित कर सकता है?
क्या राष्ट्रपति के विवेकाधिकार अनुच्छेद 201 के तहत न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं?
क्या सुप्रीम कोर्ट समयसीमा और प्रक्रिया निर्धारित कर सकता है राष्ट्रपति के निर्णय के लिए?
जब राज्यपाल कोई विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजता है, तो क्या राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट से सलाह लेनी चाहिए?
क्या विधेयक कानून बनते समय से पहले ही न्यायिक परीक्षण के योग्य होते हैं?
क्या अनुच्छेद 142 के अंतर्गत न्यायालय राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को पलट सकता है?
क्या बिना राज्यपाल की सहमति के कोई विधेयक कानून बन सकता है?
क्या संविधान पीठ का गठन अनिवार्य है जब सवाल संविधान की व्याख्या से जुड़ा हो?
क्या अनुच्छेद 142 के तहत कोर्ट substantive कानून के खिलाफ भी आदेश दे सकता है?
क्या केंद्र और राज्य के बीच मतभेद सिर्फ अनुच्छेद 131 के तहत ही सुलझाए जा सकते हैं?
कार्यपालिका के विवेक की सीमा
यह मामला एक बुनियादी संवैधानिक सिद्धांत को छूता है: क्या न्यायपालिका कार्यपालिका को यह निर्देश दे सकती है कि उसे कैसे और कितने समय में काम करना है, विशेषकर जब संविधान इस बारे में मौन है? यदि कोर्ट समयसीमा तय करता है, तो क्या वह कार्यपालिका के विवेकाधिकार में हस्तक्षेप नहीं होगा?
तमिलनाडु प्रकरण से उत्पन्न संकट
यह पूरा मामला तब उभरा जब तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि ने विधानसभा द्वारा पारित 10 विधेयकों को लंबी अवधि तक रोक कर रखा और अंततः उन्हें राष्ट्रपति को भेज दिया। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त टिप्पणी करते हुए कहा कि राज्यपाल इस तरह संविधान की अवहेलना नहीं कर सकते।
संविधानिक संतुलन की चुनौती
यह Presidential Reference 13 मई 2025 को औपचारिक रूप से सुप्रीम कोर्ट को भेजा गया। यह भी माना जा रहा है कि राष्ट्रपति भवन और केंद्र सरकार दोनों इस मामले में पूरी गंभीरता से सुप्रीम कोर्ट की राय का इंतजार कर रहे हैं, क्योंकि यह भविष्य में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका और समयसीमा की संवैधानिक वैधता को परिभाषित करेगा।
निष्कर्ष: क्या न्यायपालिका कार्यपालिका को बाध्य कर सकती है?
यह प्रश्न भारत के संवैधानिक ढांचे, शक्तियों के पृथक्करण (separation of powers) और संघीय शासन की आत्मा से जुड़ा है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस राष्ट्रपति संदर्भ पर दी गई राय, आगे चलकर केंद्र और राज्य संबंधों, गवर्नर की भूमिका, तथा विधायी प्रक्रिया में न्यायपालिका की सीमा को स्पष्ट करेगी।
अब देश की नजरें सुप्रीम कोर्ट पर हैं — क्या वो संविधान की ‘मौन व्याख्या’ में स्पष्टता लाएगा या कार्यपालिका के विवेक को अछूता रहने देगा?