महंत साध्वी शालिनीनंद जी ने अपने प्रवचन में ग्रंथों, पुराणों और शास्त्रों की पूजा के महत्व पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरितमानस चारों वेदों और 18 पुराणों का सार है। यह ग्रंथ न केवल आध्यात्मिक ज्ञान का भंडार है, बल्कि जीवन को सही दिशा प्रदान करने वाला मार्गदर्शक भी है। उन्होंने भक्तों को प्रेरित करते हुए कहा कि सच्चा सुख और आनंद तभी प्राप्त होता है, जब मनुष्य का अंतःकरण शुद्ध और सुखी हो। बाहरी सुख-सुविधाएं क्षणिक होती हैं, लेकिन आंतरिक शांति ही वास्तविक आनंद का स्रोत है।
साध्वी शालिनीनंद जी ने संतों और महात्माओं के समाज में महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि संतों का होना समाज के लिए चलता-फिरता प्रयाग तीर्थ है। ऐसे संत और महात्मा अपने ज्ञान और साधना से समाज का कल्याण करते हैं और लोगों को सही मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। वे अपने जीवन के माध्यम से मानवता को प्रेम, करुणा और धर्म का संदेश देते हैं। संतों की वाणी और आचरण से समाज में सकारात्मक बदलाव आता है, जो लोगों को आत्मिक और नैतिक उत्थान की ओर ले जाता है।
राम नाम की महिमा का वर्णन करते हुए साध्वी जी ने कहा कि राम का नाम स्वयं भगवान राम से भी महान है। राम नाम की शक्ति इतनी अपार है कि इसके जप से असंभव को भी संभव किया जा सकता है। उन्होंने भगवान शंकर, संत मीरा और भक्त प्रहलाद का उदाहरण देते हुए कहा कि इन महान आत्माओं ने राम नाम के बल पर विष का पान किया और अमरत्व प्राप्त किया। राम नाम न केवल मनुष्य को भवसागर से पार ले जाता है, बल्कि उसके जीवन को पवित्रता और सकारात्मकता से भर देता है।
साध्वी शालिनीनंद जी ने भक्तों से आह्वान किया कि मनुष्य को अपने स्वभाव को सुधारना चाहिए और धर्म-कर्म के मार्ग पर चलना चाहिए। उन्होंने कहा कि सच्चा धर्म वही है जो मनुष्य को दूसरों के प्रति प्रेम, दया और सहानुभूति का भाव सिखाए। धर्म-कर्म में लीन रहने से न केवल व्यक्तिगत जीवन में शांति मिलती है, बल्कि समाज में भी सौहार्द और एकता का वातावरण बनता है। उन्होंने भक्तों को प्रेरित करते हुए कहा कि छोटे-छोटे सत्कर्मों से जीवन को अर्थपूर्ण बनाया जा सकता है।