महाकुंभ में कचरा प्रबंधन: सरकारी दावे
उत्तर प्रदेश सरकार ने दावा किया कि महाकुंभ 2025 के दौरान उत्पन्न 30 हज़ार टन कचरे का निपटान पूरी तरह से वैज्ञानिक और पर्यावरण-अनुकूल तरीके से किया गया। सरकार के अनुसार:
- 40% कचरा ऑर्गेनिक था, जिसे कम्पोस्टिंग के लिए भेजा गया।
- 30% कचरा रिफ्यूज़ डिराइव्ड फ्यूल (RDF) के रूप में सीमेंट फैक्ट्रियों में ईंधन के लिए उपयोग किया गया।
- 30% कचरा इनर्ट मटेरियल था, जिसे लैंडफिल में भेजा गया।
- इसके अलावा, बसवार वेस्ट डिस्पोजल प्लांट में मियावाकी तकनीक से 9,000 वर्ग मीटर में सघन वन विकसित करने का दावा किया गया, ताकि पर्यावरण को लाभ पहुंचे।
- सरकार ने यह भी कहा कि 12,000 सफाई कर्मचारियों और 150 कचरा प्रबंधन केंद्रों की मदद से मेला क्षेत्र को स्वच्छ रखा गया, जिसके लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में "सबसे बड़े सफाई अभियान" के रूप में जगह मिली।
जीपीएस ट्रैकर से जांच: बीबीसी की पड़ताल
सरकारी दावों की सत्यता को परखने के लिए बीबीसी ने एक अनोखा प्रयोग किया। उन्होंने डायपर और चिप्स के पैकेट में जीपीएस ट्रैकर लगाकर कचरे के साथ मेला क्षेत्र में छोड़ दिया। इन ट्रैकरों का उद्देश्य यह पता लगाना था कि कचरा वास्तव में कहां जाता है और क्या सरकारी दावों के अनुसार इसका वैज्ञानिक निपटान हो रहा है।
जांच के नतीजों ने सरकारी दावों पर गंभीर सवाल खड़े किए:
1.
कचरे का ठिकाना: जीपीएस ट्रैकर मेला क्षेत्र से उठाए गए कचरे के साथ प्रयागराज के बसवार गाँव स्थित वेस्ट डिस्पोजल प्लांट पहुंचे। लेकिन हैरानी की बात यह है कि 29 जनवरी 2025 को वहां पहुंचा कचरा 23 मई 2025 तक, यानी 114 दिनों बाद भी उसी स्थान पर पड़ा रहा। इससे साफ हुआ कि कचरे का वैज्ञानिक निपटान नहीं हुआ, बल्कि इसे डंपिंग ग्राउंड में जमा कर दिया गया।
2.
मियावाकी जंगल का सच: सरकार ने दावा किया था कि बसवार प्लांट में मियावाकी तकनीक से 9,000 वर्ग मीटर में सघन वन बनाया गया। लेकिन बीबीसी की टीम ने जब मौके का मुआयना किया, तो वहां कोई जंगल नहीं मिला। इसके बजाय, वहां कचरे के ढेर और बदबू का आलम था, जो पर्यावरणीय प्रबंधन के दावों को खोखला साबित करता है।
3.
स्थानीय लोगों की शिकायतें: बसवार गाँव के निवासियों ने बताया कि वेस्ट डिस्पोजल प्लांट 2011 में बना था, लेकिन यह केवल एक डंपिंग ग्राउंड बनकर रह गया है। कचरे के ढेर से उठने वाली बदबू और मक्खियों ने स्थानीय लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। ग्रामीणों का कहना है कि कचरे का कोई वैज्ञानिक निपटान नहीं हो रहा, और यह उनके स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरा बन रहा है।
कचरा प्रबंधन की वास्तविकता
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बसवार प्लांट की स्थिति: जांच में पाया गया कि बसवार वेस्ट डिस्पोजल प्लांट में कचरे को छांटने या प्रोसेस करने की कोई उचित व्यवस्था नहीं है। कचरा केवल डंप किया जा रहा है, जिससे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है।
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RDF और कम्पोस्टिंग पर सवाल: सरकार ने दावा किया कि 30% कचरा RDF के रूप में सीमेंट फैक्ट्रियों को भेजा गया और 40% कचरे से कम्पोस्ट बनाया गया। लेकिन बीबीसी की जांच में कोई ठोस सबूत नहीं मिला कि कचरे का इतना बड़ा हिस्सा वास्तव में इस तरह प्रोसेस किया गया।
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गिनीज़ रिकॉर्ड की सत्यता: गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड की मान्यता केवल सफाई अभियान की गति और पैमाने पर आधारित थी, न कि कचरे के अंतिम निपटान की गुणवत्ता पर। इससे यह सवाल उठता है कि क्या यह रिकॉर्ड केवल प्रचार का हिस्सा था।
स्वच्छ भारत अभियान और वास्तविकता का अंतर
महाकुंभ 2025 को स्वच्छ भारत अभियान के तहत एक मॉडल के रूप में पेश किया गया। लेकिन जीपीएस ट्रैकर की जांच और स्थानीय लोगों की शिकायतों ने इस अभियान की कमियों को उजागर किया। कचरे के निपटान में पारदर्शिता की कमी और वैज्ञानिक प्रक्रिया का अभाव पर्यावरणीय प्रबंधन के सरकारी दावों पर सवाल उठाता है।
प्रयागराज महाकुंभ 2025 ने आध्यात्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से तो विश्व में अपनी छाप छोड़ी, लेकिन कचरा प्रबंधन के मामले में यह एक मिसाल बनने से चूक गया। बीबीसी की जीपीएस ट्रैकर जांच ने साबित किया कि 30 हज़ार टन कचरे का निपटान वैज्ञानिक तरीके से नहीं हुआ, बल्कि यह बसवार के डंपिंग ग्राउंड में जमा हो गया। मियावाकी जंगल और RDF जैसे दावे हकीकत से कोसों दूर हैं। यह स्थिति न केवल पर्यावरणीय चिंता पैदा करती है, बल्कि स्वच्छ भारत अभियान के तहत किए गए बड़े-बड़े वादों की सत्यता पर भी सवाल उठाती है।
सरकार को चाहिए कि वह कचरा प्रबंधन में पारदर्शिता लाए, वैज्ञानिक निपटान की प्रक्रिया को मजबूत करे और स्थानीय समुदायों की शिकायतों का समाधान करे, ताकि भविष्य में इस तरह के आयोजनों में पर्यावरणीय जिम्मेदारी को प्राथमिकता दी जा सके।