महंत साध्वी शालिनी नन्द जी महाराज ने कहा कि द्रौपदी, जो महाभारत युद्ध के लिए सबसे अधिक उत्साहित थीं, युद्ध की असली कीमत तब समझ सकीं, जब उनके पांचों पुत्र इस युद्ध में मारे गए। प्रवचन में उन्होंने बताया कि द्रौपदी पांडवों को युद्ध के लिए प्रेरित करती थीं और भगवान श्रीकृष्ण के शांति प्रयासों का सबसे प्रबल विरोध करती थीं। जब भी समझौते की बात उठती, द्रौपदी अपने अपमान का हवाला देतीं और कहतीं, “मेरे खुले बाल, जो दुशासन के रक्त की प्यासी हैं, उनका क्या? भीम की दुर्योधन की जंघा तोड़ने की प्रतिज्ञा का क्या? कर्ण, जिसने मुझे वेश्या कहा, उसे मैं कैसे जीवित देख सकती हूँ?”
साध्वी जी ने बताया कि श्रीकृष्ण बार-बार द्रौपदी को समझाते कि युद्ध केवल उनके व्यक्तिगत प्रतिशोध तक सीमित नहीं है। उन्होंने चेताया, “यदि यह युद्ध हुआ, तो लाखों निर्दोष मारे जाएंगे। बच्चे अनाथ होंगे, महिलाएं विधवा होंगी, और माताओं की गोद सूनी हो जाएगी। युद्ध में मरने वाले वे सैनिक होंगे, जिनका इससे कोई लेना-देना नहीं।” लेकिन द्रौपदी के अड़ियल रवैये और अन्य परिस्थितियों के कारण श्रीकृष्ण के शांति प्रयास असफल रहे, और महाभारत का भीषण युद्ध हुआ।
युद्ध के अंतिम चरण में जब द्रौपदी के पांचों पुत्र मारे गए और सुभद्रा का पुत्र अभिमन्यु पहले ही वीरगति को प्राप्त हो चुका था, तब द्रौपदी विलाप करने लगीं। इस पर श्रीकृष्ण ने उन्हें कठोर शब्दों में कहा, “तुम तो युद्ध चाहती थीं, शांति के हर प्रयास का विरोध करती थीं। अब क्यों विलाप कर रही हो? क्या तुमने सोचा था कि युद्ध में केवल दूसरों के बेटे मरेंगे और तुम्हें कुछ नहीं खोना पड़ेगा?”
महंत साध्वी शालिनी नन्द जी महाराज ने इस प्रसंग के माध्यम से समाज को चेताया कि युद्ध की कीमत तब तक समझ नहीं आती, जब तक वह हमारे अपने दरवाजे पर दस्तक न दे। उन्होंने जोर देकर कहा, “राष्ट्रवादी युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए। इसे स्पष्ट और सीमित उद्देश्य के लिए लड़ा जाना चाहिए, और उद्देश्य की प्राप्ति के बाद सम्मानजनक समझौते के साथ युद्ध समाप्त कर देना चाहिए।”
उनके इस प्रवचन ने श्रोताओं को गहरे चिंतन के लिए प्रेरित किया। साध्वी जी का यह संदेश आज के वैश्विक परिदृश्य में भी अत्यंत प्रासंगिक है, जहां युद्ध और हिंसा के बजाय शांति और संवाद को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।