यह बयान उस समय आया है, जब सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा बिलों पर देरी से फैसले को अवैध और मनमाना करार देते हुए स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी किए। कोर्ट ने कहा था कि राज्यपालों को बिलों पर जल्द से जल्द फैसला लेना चाहिए, ताकि राज्य विधानसभाओं का कामकाज बाधित न हो। इस फैसले में यह भी कहा गया कि यदि राज्यपाल तय समय में फैसला नहीं लेते, तो राज्य सरकारें अदालत का रुख कर सकती हैं।
राज्यपाल अर्लेकर ने तर्क दिया कि संविधान के अनुच्छेद 200 में बिलों पर फैसले के लिए कोई समय सीमा का उल्लेख नहीं है। उनके मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला संवैधानिक प्रावधानों से परे जाता है और इसे संविधान संशोधन की तरह देखा जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि इस तरह के मामलों को संसद या संविधान पीठ को सौंपा जाना चाहिए था, क्योंकि दो जजों का फैसला संविधान के स्वरूप को बदलने का अधिकार नहीं रखता।
हालांकि, राज्यपाल ने यह भी स्पष्ट किया कि केरल में उनके कार्यकाल के दौरान कोई बिल लंबित नहीं है। उन्होंने अपने पूर्ववर्ती राज्यपाल अरिफ मोहम्मद खान और राज्य सरकार के बीच हुए विवादों से दूरी बनाते हुए कहा कि उनका मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के साथ रिश्ता सौहार्दपूर्ण है और किसी भी मुद्दे पर आपसी चर्चा से समाधान निकाला जाता है।
यह विवाद उस समय और गहरा गया, जब सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति को भी उन बिलों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा, जो राज्यपाल द्वारा उनके विचार के लिए भेजे जाते हैं। कोर्ट ने यह व्यवस्था दी कि यदि इस समय सीमा में फैसला नहीं लिया जाता, तो राज्य सरकारें इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकती हैं। इस फैसले का असर केरल, तमिलनाडु, पंजाब और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों पर पड़ सकता है, जहां राज्यपाल और राज्य सरकारों के बीच बिलों को लेकर तनाव देखा गया है।
राज्यपाल के इस बयान ने एक नई बहस छेड़ दी है। जहां एक ओर केंद्र और राज्यों के बीच सत्ता के संतुलन को लेकर सवाल उठ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह चर्चा भी तेज हो गई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट का यह कदम वास्तव में संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह मामला भविष्य में और जटिल हो सकता है, क्योंकि यह न केवल राज्यपालों की भूमिका को प्रभावित करेगा, बल्कि संघीय ढांचे पर भी असर डालेगा।